...और जब पृथ्वी से आखिरी पेड़ कटेगा
Gaon Connection | Mar 15, 2017, 15:57 IST
…और जब पृथ्वी से आखिरी पेड़ कटेगा
पहाड़ों को काटकर रास्ते बनाए जा रहे हैं। गहरी घाटियों तक पहुंचने के लिए पक्की सड़कें बनने लगी है। तथाकथित मॉडर्न समाज से दूर रहने वाली पातालकोट की बस्ती अब टार रोड बनने के बाद बाहरी दुनिया से सीधे-सीधे जुड़ चुकी है। अपनी हालिया पातालकोट यात्रा के बाद ये सब देखकर एक सवाल मैं खुद से पूछने लगा कि अब ‘पातालकोट है कहाँ?’ लगभग 79 स्के. किमी. में बसी 3000 फीट गहरी इस घाटी में करीब 20 वर्षों से लगातार आता जाता रहा हूं।
अपने रिसर्च करियर की शुरुआत भी यहीं से की थी। इन बीस वर्षों के आखिरी पांच वर्षों में इस घाटी में जितनी तेज़ी से बदलाव आया है, देखकर हैरान हूं। ये कैसा विकास है जिसमें रास्ते तो बन गए लेकिन स्थानीय लोग उन रास्तों पर चलना नहीं चाहते? क्यों आज भी इन्हें घाटी में पैदल चलना पसंद है? क्या वाकई इनकी इच्छा है कि ये बाहरी दुनिया के साथ घुल जाएं? सड़क बनी है तो बिचौलियों और जंगल के दलालों के लिए आवागमन आसान हो चुका है और अब तो हर दूसरे दिन एक सरकारी एजेंसी यहां आकर पिकनिक मनाती है और डरे सहमे वनवासी उनकी जी हुजूरी करते दिखाई देते हैं।
पारंपरिक गीत या लोक नृत्य तो जैसे छू-मंतर होने लगे हैं, अब यहां डीजे बज रहा है और स्थानीय युवा डेनिम के कपड़े पहनकर घाटी से बाहर की दुनिया देखने निकलने को बेताब सा हो चुका है। स्थानीय बच्चों को औपचारिक शिक्षा देने की जिम्मेदारी सरकार ने ले जरूर रखी है लेकिन अनौपचारिक शिक्षा देने के लिए कुछ भी नहीं। ये बात जगजाहिर है कि वनों की संपदा ही वनवासियों के लिए जीवन का सबसे अहम हिस्सा होती है। वनवासियों के लिए सांस लेने जैसे जरूरतों के बाद सबसे अहम और जरूरी कुछ हो सकता है तो वो है ‘वन संपदा।’
जंगल वनवासियों के लिए एक प्रयोगशाला की तरह है जिसमें रह रहे बुजुर्ग किसी वैज्ञानिक की तरह और नई पीढ़ी शोधार्थियों की तरह होती है। वनवासी बुजुर्ग अपने अनुभवों के आधार पर युवाओं को जीना सीखाते हैं, पारंपरिक ज्ञान को साझा करते हैं और ‘सर्व भवन्तु सुखिन:’ के भाव को सिद्ध करने का भरसक प्रयास करते हैं। वनों का जीवन हमारे शहरी जीवन से बिल्कुल अलग है। शहर की आपाधापी और दौड़-भाग से भरी जिन्दगी में शायद हम कुछ अलग, कुछ नया करने का साहस नहीं जुटा पाते लेकिन वनवासियों और ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोग आज भी नवसृजन करने के बेताब हैं, कुछ नया करना या अच्छा करने का भाव आज भी देखा जा सकता है।
अपने शोधकाल के 90 के दशक से लेकर आज तक मैंने इन्हीं प्रयोगों, नवसृजनों और जड़ी बूटियों संबंधित ज्ञान को देखा, महसूस किया और लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है ताकि आने वाले पीढ़ी भी इन वनवासियों के ज्ञान को समझ पाए, वनों को समझ पाए और फिर एक दिन वो भी आए जब गाँवों और वनों के बाशिंदों को शहरीकरण और आधुनिकता के नाम पर हो रहे अतिक्रमण से बचाने के लिए हाथ-पैर और दिमाग आगे आएं। विकास के नाम पर अंधाधुंध प्रोजेक्ट्स चलाकर कभी किसी एजेंसी ने उसके परिणामों पर नज़र क्यों नहीं डाली है।
एजेंसियों को भी तो पता चले कि आखिर हमने किया क्या, और हम हैं कहां? पातालकोट एडवेंचर टूरिज़्म जैसी सरकारी गतिविधियों के चलते यहां का जो सत्यानाश हुआ है वो किसी ने महसूस क्यों नहीं किया? वनवासियों को रोजगार दिलाने के मुख्य उद्देश्य से आयोजित किए जाने वाले इस तरह के कार्यक्रमों से क्या वाकई कभी किसी स्थानीय का भला हुआ है? या फिर बड़ी-बड़ी तादाद में आकर बाहरी लोगों ने जंगल की नींद उड़ाकर रख दी और स्थानीय लोगों को बाहर की दुनिया देखने का लालच दिखाया? जंगलों में वनवासी ही नहीं रह पाएंगे तो वन और वन्य जीव भी खत्म होते चले जाएंगे.. और जिस दिन इस पृथ्वी से आखिरी पेड़ भी कट जाएगा शायद तब हमें समझ आएगा कि सिर्फ नोटों को खाकर जीवित नहीं रहा जा सकता।
(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)
अपने रिसर्च करियर की शुरुआत भी यहीं से की थी। इन बीस वर्षों के आखिरी पांच वर्षों में इस घाटी में जितनी तेज़ी से बदलाव आया है, देखकर हैरान हूं। ये कैसा विकास है जिसमें रास्ते तो बन गए लेकिन स्थानीय लोग उन रास्तों पर चलना नहीं चाहते? क्यों आज भी इन्हें घाटी में पैदल चलना पसंद है? क्या वाकई इनकी इच्छा है कि ये बाहरी दुनिया के साथ घुल जाएं? सड़क बनी है तो बिचौलियों और जंगल के दलालों के लिए आवागमन आसान हो चुका है और अब तो हर दूसरे दिन एक सरकारी एजेंसी यहां आकर पिकनिक मनाती है और डरे सहमे वनवासी उनकी जी हुजूरी करते दिखाई देते हैं।
M Ad 3
सूर्योदय से लेकर देर रात तक, वन संपदाएं वनवासियों के जीवन के सबसे प्रमुख अंग होती हैं। अपनी छोटी से छोटी और मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर सबसे अहम जरूरतों को पूरा करने के लिए वनवासी लोग वनों पर आश्रित हैं। अब तक यहां तेज रफ्तार से भागने के लिए हवाई जहाज या मेट्रो नहीं, फटाफट जानकारी टटोल निकालने के लिए गूगल या कोई डेटाबेस नहीं, विटामिन ई से भरपूर शैम्पू नहीं, और तो और नमक वाला टूथपेस्ट भी नहीं है यानी यहां कुछ भी बाहर का नहीं, जो है वो स्थानीय और आवश्यताओं पर आधारित है। M AD 4
अपने शोधकाल के 90 के दशक से लेकर आज तक मैंने इन्हीं प्रयोगों, नवसृजनों और जड़ी बूटियों संबंधित ज्ञान को देखा, महसूस किया और लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है ताकि आने वाले पीढ़ी भी इन वनवासियों के ज्ञान को समझ पाए, वनों को समझ पाए और फिर एक दिन वो भी आए जब गाँवों और वनों के बाशिंदों को शहरीकरण और आधुनिकता के नाम पर हो रहे अतिक्रमण से बचाने के लिए हाथ-पैर और दिमाग आगे आएं। विकास के नाम पर अंधाधुंध प्रोजेक्ट्स चलाकर कभी किसी एजेंसी ने उसके परिणामों पर नज़र क्यों नहीं डाली है।
एजेंसियों को भी तो पता चले कि आखिर हमने किया क्या, और हम हैं कहां? पातालकोट एडवेंचर टूरिज़्म जैसी सरकारी गतिविधियों के चलते यहां का जो सत्यानाश हुआ है वो किसी ने महसूस क्यों नहीं किया? वनवासियों को रोजगार दिलाने के मुख्य उद्देश्य से आयोजित किए जाने वाले इस तरह के कार्यक्रमों से क्या वाकई कभी किसी स्थानीय का भला हुआ है? या फिर बड़ी-बड़ी तादाद में आकर बाहरी लोगों ने जंगल की नींद उड़ाकर रख दी और स्थानीय लोगों को बाहर की दुनिया देखने का लालच दिखाया? जंगलों में वनवासी ही नहीं रह पाएंगे तो वन और वन्य जीव भी खत्म होते चले जाएंगे.. और जिस दिन इस पृथ्वी से आखिरी पेड़ भी कट जाएगा शायद तब हमें समझ आएगा कि सिर्फ नोटों को खाकर जीवित नहीं रहा जा सकता।
(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)